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त्रिर॑स्मै स॒प्त धे॒नवो॑ दुदुह्रे स॒त्यामा॒शिरं॑ पू॒र्व्ये व्यो॑मनि । च॒त्वार्य॒न्या भुव॑नानि नि॒र्णिजे॒ चारू॑णि चक्रे॒ यदृ॒तैरव॑र्धत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trir asmai sapta dhenavo duduhre satyām āśiram pūrvye vyomani | catvāry anyā bhuvanāni nirṇije cārūṇi cakre yad ṛtair avardhata ||

पद पाठ

त्रिः । अ॒स्मै॒ । स॒प्त । धे॒नवः॑ । दु॒दु॒ह्रे॒ । स॒त्याम् । आ॒ऽशिर॑म् । पू॒र्व्ये । विऽओ॑मनि । च॒त्वारि॑ । अ॒न्या । भुव॑नानि । निः॒ऽनिजे॑ । चारू॑णि । च॒क्रे॒ । यत् । ऋ॒तैः । अव॑र्धत ॥ ९.७०.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:70» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब पच्चीस प्रकार के तत्त्वों का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्व्ये व्योमनि) महदाकाश में (अन्या) प्रकृति से भिन्न (चत्वारि भुवनानि) चार तत्त्व (यत्) जो कि (चारूणि) सुन्दर हैं, वे (निर्णिजे) शुद्धि के लिये (ऋतैः) प्रकृति के सत्य द्वारा (चक्रे) परमात्मा ने रचे हैं। (अस्मे) इस कार्य के लिये (धेनवः) वेदवाणियें (त्रिः सप्तः) अहंकार से लेकर इन्द्रियों तक २१ तत्त्वों द्वारा (दुदुह्रे) पूर्ण करती हैं और उससे (सत्यामाशिरम्) सत्य हैं कारण जिनके, ऐसे क्षीरादि रसों को (अवर्धत) बढ़ाती हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने प्रकृति उपादान कारण से इस संसार को उत्पन्न किया और वह इस प्रकार की प्रकृति से महत्तत्त्व और महत्तत्त्व से अहंकार और अहंकार से पञ्चतन्मात्र अर्थात् शब्द स्पर्श रूप रस तथा गन्ध इन से पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय एवं पञ्च-भूत अर्थात् पृथिवी जल तेज वायु आकाश और २१ वाँ अहंकार इन २१ प्रकृतियों से परमात्मा ने संसार को उत्पन्न किया। महत्तत्त्व को यहाँ इसलिये नहीं गिना कि वह वैदिक लोगों के मन्तव्य में एक प्रकार की प्रकृति ही है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति इस संसार का परिणामी उपादान कारण है। अर्थात् प्रकृति के परिणाम से इस संसार की रचना हुई है और परमात्मा कूटस्थ नित्य है। उसका किसी प्रकार से परिणाम वा परिवर्तन नहीं होता ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ पञ्चविंशतितत्त्वानि वर्ण्यन्ते ।

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्व्ये व्योमनि) महदाकाशे (अन्या) प्रकृतेरन्यानि (चत्वारि भुवनानि) चत्वारि तत्त्वानि (यत्) यानि (चारूणि) सुन्दराणि सन्ति तानि (निर्णिजे) शुद्धये (ऋतैः) प्रकृतेः सत्यद्वारेण (चक्रे) परमात्मना निर्मितानि सन्ति। (अस्मे) एतदर्थं (धेनवः) वेदवाचः (त्रिः सप्त) अहङ्कारत इन्द्रियपर्यन्तमेकविंशतितत्त्वैः (दुदुह्रे) दुहन्ति। अथ च तैस्तत्त्वैः (सत्यामाशिरम्) सत्यकारणभूतान् क्षीरादिरसान् (अवर्धत) वर्धयन्ति ॥१॥